शिव रुद्राष्टकम लिरिक्स और अर्थ

🔱 शिव रुद्राष्टकम (Shiv Rudrashtakam)

🌺 रुद्राष्टकम् 🌺

✍🏻 रचयिता: गोस्वामी तुलसीदास
📖 अर्थ सहित


🕉️ पाठ (Shloka) + हिंदी अर्थ

1.
🙏
नमामीशमीशान निर्वाण रूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम्।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम्॥

📚 मैं ईश, ईशान (शिव) को नमस्कार करता हूँ, जो निर्वाण स्वरूप, सर्वव्यापक, ब्रह्म और वेदों के रूप हैं। वे अपने स्वरूप में स्थित, निर्गुण, विकल्प रहित, इच्छा रहित, चैतन्य आकाश स्वरूप और आकाश में वास करने वाले हैं। मैं उनका भजन करता हूँ।


2.
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं
गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्।
करालं महाकाल कालं कृपालं
गुणागार संसारपारं नतोऽहम्॥

📚 जो निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (चतुर्थ अवस्था), वाणी, ज्ञान और इंद्रियों से परे, ईश्वर, गिरिश (पर्वतों के स्वामी), कराल (भयंकर), महाकाल, कालों के भी काल, कृपालु, गुणों के भंडार और संसार से पार हैं — उन्हें मैं नमन करता हूँ।


3.
तुषाराद्रि संकाश गौरं गम्भीरं
मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा
लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥

📚 जो बर्फ जैसे श्वेत, गंभीर, कामदेव के करोड़ों रूपों से भी अधिक सुंदर, जिनके सिर पर गंगा की धारा लहरा रही है, जिनके ललाट पर चंद्रमा शोभायमान है और कंठ में सर्प है — ऐसे शिव को मैं प्रणाम करता हूँ।


4.
चलत्कुण्डलं भ्रुकुटीरेखमंडलं
स्पुरत्तुण्डं नागेन्द्र हारं सुशोभम्।
केयूर कंगण कटकं सुबर्णं
कण्ठोत्तमं भास्करं भासमानम्॥

📚 जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, भौंहों की भंगिमा से भयानक प्रतीत होते हैं, होंठों से चमकती मुस्कान, नागों का हार पहने हुए हैं, जिनके कंगन, केयूर, और अन्य आभूषण स्वर्ण जैसे चमकते हैं — ऐसे प्रभु की मैं वंदना करता हूँ।


5.
प्रसन्नं प्रभावं प्रबुद्धं अनघं
धृवं निर्विकल्पं विभुं भ्राम्यभावम्।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी
सदा सच्चिदानन्द रूपं नमामि॥

📚 जो सदा प्रसन्न, प्रभावशाली, प्रबुद्ध, पापरहित, अचल, विकल्प रहित, सर्वव्यापक, भ्रम से रहित, समय से परे, कल्याणकारी, कल्पांत में संहार करने वाले और सच्चिदानंद स्वरूप हैं — उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ।


6.
न यं योगिजानं न कां नेंद्रगंयं
न चापो न वायुः न तेजो न भूमिः।
न यं भोजनं नैव बोधं न मूर्तिं
चिदानन्द रूपं शिवं संप्रणम्य॥

📚 जो न तो योगियों द्वारा पूर्णत: जानने योग्य हैं, न इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किए जा सकते हैं, न जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी के रूप में सीमित हैं, न जिन्हें भोजना, जानना, या मूर्त रूप में समझा जा सकता है — ऐसे चिदानंद स्वरूप शिव को मैं प्रणाम करता हूँ।


7.
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः
पिता नैव मे नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यं
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥

📚 मुझे मृत्यु का भय नहीं, न ही जाति का भेदभाव है; मेरे न पिता हैं, न माता, न जन्म। न कोई बंधु, न मित्र, न गुरु, न शिष्य — मैं चिदानंद स्वरूप शिव हूँ, शिव ही हूँ।


8.
शिव रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तमुत्तमं
प्रयत्नो यद्भक्त्या पठेच्छिवाय।
यदीशं सदा योगयुक्तो भवेत्
शिवलोकमावाप्य स नो यति याति॥

📚 यह उत्तम रुद्राष्टक जो भी श्रद्धा और भक्ति से पढ़ेगा, वह शिव में सदा लीन रहेगा और अंततः शिवलोक को प्राप्त करेगा — वह फिर संसार में नहीं लौटेगा।


🌸 सारांश:

रुद्राष्टक” एक गहन भक्ति और ध्यान का स्तोत्र है जो शिवजी की निर्गुण और सगुण दोनों स्वरूपों का वर्णन करता है। इसका नियमित पाठ साधक को भय, दुःख और पाप से मुक्त करता है और शिवलोक की प्राप्ति कराता है।

🔱 रुद्राष्टकम् — सम्पूर्ण विवरण सहित 🔱
रचयिता: गोस्वामी तुलसीदास
भाषा: संस्कृत
रचना काल: 16वीं शताब्दी
अष्टक छंद: प्रत्येक श्लोक में 4 चरण होते हैं और कुल 8 श्लोक हैं
उद्देश्य: भगवान शिव की स्तुति और आत्मसमर्पण


📜 संस्कृत मूलपाठ एवं अर्थ सहित:

श्लोक 1

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम्॥

भावार्थ:
मैं उन ईशान (भगवान शिव) को नमस्कार करता हूँ जो निर्वाण स्वरूप हैं, सबमें व्यापक हैं, ब्रह्म और वेदस्वरूप हैं। जो अपने आप में स्थित हैं, निर्गुण हैं, विकल्पहीन हैं, इच्छारहित हैं। जो चैतन्य रूपी आकाश हैं और आकाश में ही निवास करते हैं। ऐसे शिव की मैं उपासना करता हूँ।


श्लोक 2

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं
गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्।
करालं महाकाल कालं कृपालं
गुणागार संसारपारं नतोऽहम्॥

भावार्थ:
वे निराकार हैं, ओंकार के मूल हैं, तुरीय (चौथे) स्वरूप हैं, वाणी और ज्ञान से परे हैं। वे गिरीश (पर्वतराज के स्वामी), कालों के भी महाकाल हैं, कराल (भयानक), परंतु कृपालु हैं। वे गुणों का भंडार हैं और संसार के पार हैं। मैं उन्हें नमन करता हूँ।


श्लोक 3

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं
मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा
लसद्भाल बालेंदु कण्ठे भुजङ्गा॥

भावार्थ:
जिनका शरीर हिमालय के समान गौरवर्ण का है, जो गम्भीर हैं, जिनकी प्रभा करोड़ों कामदेवों से अधिक आकर्षक है। जिनके सिर पर लहराती गंगा शोभायमान है, जिनके ललाट पर चंद्रमा है और कंठ में सर्प शोभा पाता है — ऐसे शिव को मैं नमन करता हूँ।


श्लोक 4

चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं
प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं
प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि॥

भावार्थ:
जिनके कानों में कुंडल हिल रहे हैं, जिनकी भौंहें वक्र और नेत्र विशाल हैं, जो प्रसन्नमुख हैं, जिनका कंठ नील है (हलाहल पान करने के कारण), जो दयालु हैं। जिनका वस्त्र सिंह की खाल है और गले में मुण्डमाला है, ऐसे प्रिय शंकर, सबके स्वामी की मैं भक्ति करता हूँ।


श्लोक 5

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं
अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम्।
त्रयःशूल निर्मूलनं शूलपाणिं
भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम्॥

भावार्थ:
वे अत्यंत प्रचण्ड, महान, निडर और परमेश्वर हैं। वे अखण्ड, अजन्मे, और करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी हैं। उनके त्रिशूल से त्रिगुणों का नाश होता है, वे शूलधारी हैं, भवानीपति हैं और भक्ति के द्वारा ही प्राप्त होते हैं। ऐसे शिव की मैं उपासना करता हूँ।


श्लोक 6

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी
सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी
प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारि॥

भावार्थ:
वे काल और कला से परे हैं, कल्याण स्वरूप हैं, सृष्टि के अंत में संहारक हैं, सदा सज्जनों को आनंद देने वाले हैं, त्रिपुरासुर के संहारक हैं, चिदानन्द के समूह स्वरूप हैं, मोह का नाश करने वाले हैं। हे कामदेव को जलाने वाले प्रभो, कृपा करें।


श्लोक 7

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं
भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं
प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥

भावार्थ:
जब तक मनुष्य उमा के नाथ (शिव) के चरणकमलों का भजन नहीं करता, तब तक उन्हें न इस लोक में, न परलोक में सुख, शांति और संताप का नाश प्राप्त हो सकता है। हे सब प्राणियों में वास करने वाले प्रभो! आप प्रसन्न हों।


श्लोक 8

न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्।
जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो॥

भावार्थ:
मैं न योग जानता हूँ, न जप, न पूजन की विधि — मैं तो बस आपके चरणों में सदा नतमस्तक हूँ। मैं बुढ़ापे और जन्म-जरा आदि दुःखों से व्यथित हूँ। हे प्रभु! संकट में पड़े इस भक्त की रक्षा करें — मैं आपको नमस्कार करता हूँ।


📘 विशेष तथ्य:

  • कहां से लिया गया है?
    रुद्राष्टकम् श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में आता है। जब श्रीराम ने शिव की स्तुति की थी, तब यह अष्टक गाया गया था।
  • रचयिता का उद्देश्य:
    तुलसीदास जी भगवान शिव को श्रीराम के परमभक्त मानते हैं, अतः उन्होंने यह स्तोत्र अद्वैत और भक्ति का संगम मानकर लिखा।